Sunday, November 21, 2010
गाँव के दुःख दर्द में साझी बूढ़े बुर्ज
गाँव के खेतों में बुर्ज बूढ़े होने लग गए हैं. खेतों में अब बुर्ज की जगह पक्के कोठे बनने लग गए हैं. प्राचीन सभ्यता से पाश्चात्य सभ्यता की ओर धीरे धीरे गाँव के कदम बढ़ने लगे हैं.
हमारे बुजुर्ग
(1)
हरलाल बैनीवाल
बीस हजार जेब से खर्च कर गिन्नाणी को अतिक्रमण से बचाया
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(2)
बाली बैनीवाल
तीन सौ मण चीणां गी माद एकली बरसां देंवती अर बिचाळै पाणी ई कोनी पींवती
9 साल की उम्र में गुडिया से परलीका ब्याहकर आई बाली बैनीवाल अब नब्बै के घर को लांघ चुकी है। अपने जमाने की यादों को ताजा करती हुई वे कहती हैं 'पैली गांवां में मालो लगावता। म्हारै गांव गै गुवाड़ में मालो पड़्यो रैंवतो। एक दिन कई जवान पितावै हा, पण मालो कोनी लाग्यो। पाणी ल्यांवती एक लुगाई थमी अर सिर पर घडिय़ै थकां ई मालो चक्यो अर घड़ै ऊपरकर लारनै बगागे मार्यो। जा जांवती खोखा खांवती। बा बगै'र बा बगै। बीं दिन पछै गांव गै मरदां मालै गै हाथ ई कोनी लगायो। मैं तीन सौ मण चीणां गी माद बरसां देंवती अर बिचाळै पाणी पीवण गो ई काम कोनी हो। काम तो मेरै नूं गो मैल हो। खेत गै राह में और नां तो काचर ई छोलबो करती। बे'ली तो मिन्ट ई कोनी रैंवती। खुराक होंवती चोखी। मैं आप आध सेर घी गो सीरो एकली खा ज्यांवती। 25 दिनां गो टाबर गोदी में लेगे हाड़ी काटण गई। अब तो राज ई लुगाइयां गो आग्यो। सारी चीजां गा ठाट होग्या। बां दिनां तंदूर गी राख नै घडिय़ै में घालगे पाणी गेर देंवता। पाणी नीतर ज्यांवतो तो बीं स्यूं गाबा धोंवता। पण अब तो सगळा साधन बापरग्या। पैली कोई कूमौत कोनी सुणता। फोड़ा सैन कर लेंवता पण मरता कोनी। काण-कायदो अर सरम-लिहाज बेसी राखता। बीते जमाने की बातों का अखूट खजाना अपने में सहेजे मौन बैठी बाली ने बोलना शुरु किया तो न तो उठने को मन हुआ और न खुद बोलने का। लोकजीवन की पूंजी को अपने में सहेजे ये हमारे बुजुर्ग हमारे साथ बतियाने को कितने बेताब हैं, ये तो वही जान सकता है जो इनके पास बैठ इनकी सुने। बात-बात में कहावतें, मुहावरे। लच्छेदार व आकर्षक भाषा के धनी इन बुजुर्गों से हमे विरासत में धन-सम्पदा के साथ-साथ संस्कार व भाषा को ग्रहण करने की लालसा भी रखनी चाहिए।-------------------------------------------------------------------------------------------
(३)
प्रेमदास स्वामी
मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी
78 वर्षीय प्रेमदास स्वामी ने अपनी जिंदगी में न तो कभी अखबार पढ़ा, न रेडियो सुना। टेलीविजन तो आज भी उन्हें देवीय कृपा या मायाजाल-सा लगता है। उनको यह बात हैरान नहीं करती कि टी.वी. पर खबर क्या चल रही है, बल्कि उन्हें तो हैरत है कि जमाना कितना आगे निकल चुका है। पिछले चालीस सालों से लगातार सूत की कताई कर कलात्मक चारपाई, पीढ़े, रास, बोरा, जेवड़ा बनाने वाले इस बुजुर्ग को देखा तो जिज्ञासा हुई कि जमाने को इनकी नजर से देखा जाए। वे बताने लगे-'पैली अर अब में रात-दिन गो फरक आग्यो। जद कोसां उपाळो चालणो पड़तो, अब पांवडो ई धरण गो काम कोनी पड़ै। पाणी गा ई सांसां मिटग्या। दिनां तांईं न्हांवतां कोनी। अब सगळो गाम बीन बण्यो फिरै अर बारामासी गळियां में कादो कोनी सूकै। पैÓली नूंवां गाबा बरसां तक कोनी मिलता आज छोटै-छोटै टाबरां गै एक-एक लादो है। ब्याव में फगत एक जोड़ी धोती-कु ड़तै सूं मैं भोत राजी हो। आज एक लादो कपड़ा हरेक आदमी गै होग्या। कारी-कुटका तो रैया ई कोनी। रिपियां सार पैली जाणता ई कोनी, पण अब तो जामतै टाबर नै ई रिपियै गो कोड। बीं बगत मन मांय एक न्यारो चाव-सो होंवतो। अब बा बात ई कोनी रैयी। आधी-आधी रात तांईं गुवाड़ां में कबड्डी खेलता। संपत हो। लड़ाई कोनी होंवती। मैं चाळीस साल तक खूब डांगर-ढोर चराया, सीरी रैयो, रात-दिन कमायो पण थकेलै गो नाम कोनी जाण्यो। अब तो पूछै जिको ई जेब सूं गोळी काढ गे होठ ढीला छोड़द्यै कै आंसग कोनी। तावळी-सी रीस ई कोनी आंवती। आजकाल फोन मांखर ई बात करतां सुणां जद लागै जाणै ईं रै माखर ई सामलै रै बटको बोडसी। ढेरिया घुमाते हुए वे कहते हैं- 'म्हारै जमाने में ढेरियै गी चोखी चलबल ही। लुगाइयां चरखो अर माणस ढेरियो कातता। ढेरियै बिना मनै आवड़ै कोनी। बिलम गो बिलम अर काम गो काम। हाड चालै इतणै आदमी नै काम करणो चईयै। अब तो माचा अर पीढा फगत छोरियां नै दायजै में देवण खातर बणगे द्यूं। जमानो प्लास्टिक गो आग्यो। आपणी चीज्यां नै ओपरी चीज्यां खावण लागगी। बोरा तो गमईग्या। मेळै में गिंवारियै गी कुण सुणै। अब ढेरै गी बा तार कोनी रैयी।Ó वे बात का रुख मोड़ते हैं- 'खळा काढणा भोत दोरो काम हो। म्हीनै तांई पून कोनी चालती तो लियां ई बैठ्या रैंवता। ऊंटां पर नाज ढोणो दोÓरो हो। आज मसीनां गै कारण खेती अर गाम-गमतरा करणां सोखा होग्या। पण...Ó ऐसा कहते-कहते प्रेमदास मानो दूर कहीं खो गए और चेहरे पर चिंता के भाव छा गए। बोले-'आदमी जमाने गै सागै कीं बेसी बदळग्यो। भाई-भाई खातर ज्यान देंवतो, पण आज हाथ-हाथ नै खावै। संपत अर प्रेम भाव तो जाबक ई कम होग्यो। ऊंट पर बोरो घाल चीणा बेचण जांवता, च्यार रिपिया मण गो भाव हो। संतोष हो। अब टराली भर-भर बेचै, पण सबर कोनी। कम मैणत में बखार भर जावै आ तो ठीक है, पण पाणी गी भांत रिपियो खर्च करद्यै, बीं गी कीमत कोनी मानै। आ बात आछी कोनी। आजकाल आळां खातर मैं कैवूं कै बै हराम गी खाण गी नीत ना राखै, मैणत, लगन अर प्रेम भाव सूं आपरो हीलो करै। मायतां गी बेकदरी भोत होगी। मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी।'
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